
दूसरों का उपकार करना मनुष्य का पवित्र और अनिवार्य कर्तव्य है। दूसरों का उपकार कर उनसे प्रत्युपकार की अपेक्षा रखने से उपकार कार्य के पुण्यों का हा्रस...
दूसरों का उपकार करना मनुष्य का पवित्र और अनिवार्य कर्तव्य है। दूसरों का उपकार कर उनसे प्रत्युपकार की अपेक्षा रखने से उपकार कार्य के पुण्यों का हा्रस होता है। इसीलिये कहा गया है कि नेकी कर दरिया में डाल भलाई कर भलाई की अपेक्षा न करना ही निरपेक्ष साधना है। जो कभी है, कभी नहीं है, वास्तव में वह कभी नहीं है। जो कहीं कहीं न हो, वह कहीं नहीं है। केवल ईश्वर है, जो सदा है, सदा से है और सर्वत्र है। अपना प्रत्येक कार्य ईश्वर के लिये करें, उसी को समर्पित करें। जिन्हें कोई कार्य नहीं होता, वही दूसरों के अच्छे कार्यों में विघ्न डालते हैं। जो मूर्ख हैं, उसे समझाया जा सकता है, किन्तु जो विशेषज्ञ किन्तु अहंकारी हैं, उसे ब्रह्मा भी रास्ते पर नहीं ला सकते। देवता मनुष्य को प्रसन्न होने पर और कुछ नहीं देते, वरन उसको सद्बुद्धि प्रदान करते हैं। लोग पैसे वाले को बडा आदमी समझते हैं, जबकि व्यक्ति महान पैसे से नहीं, अपितु शिष्ट, शालीन और विनम्र होने से कहलाता है। जैसे फलों के आने पर वृक्ष झुक जाते हैं, पानी भर जाने से बादल नीचे झुक जाते हैं, नीचे आ जाते हैं, वैसे ही महापुरूष समस्त ज्ञान का भंडार होते हुए भी विनम्र बने रहते हैं।